कृषि और प्रकृति फसल की समृद्धि के लिए प्रार्थना और प्रकृति के प्रति आभार व्यक्त
रिपोर्ट – परमानन्द कुमार गुप्ता
रांची// सोहराई पर्व झारखंड का प्रमुख आदिवासी पर्व और पारंपरिक त्योहार है। यह मुख्य रूप से फसल की कटाई के बाद मनाया जाता है और पशुधन जैसे- गाय, भैंस,बैल के प्रति आभार और सम्मान प्रकट करने का उत्सव है। इसे पशु पर्व भी कहा जाता है।
दीपावली के तुरंत बाद
सामान्य रूप से यह पर्व दीपावली के तुरंत बाद कार्तिक महीने की अमावस्या को मनाया जाता है।
जनवरी के महीने में भी मनाया जाता
झारखंड के संथाल परगना जैसे कुछ क्षेत्रों में यह जनवरी के महीने में भी मनाया जाता है। यह संथाल, उरांव, मुण्डा, हो, कुरमी, खरवार और अन्य जनजातियों तथा सदान समुदायों द्वारा मनाया जाता है। संथाल जनजाति का यह सबसे महात्वपूर्ण वा मुख्य पर्व है।
सोहराई पर्व का उद्देश्य और महत्व
पशुधन का सम्मान मवेशी, जो कृषि और जीवनयापन में सहायक होते हैं, उनकी पूजा की जाती है और उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त की जाती है। इस पर्व में कृषि और प्रकृति फसल की समृद्धि के लिए प्रार्थना और प्रकृति के प्रति आभार व्यक्त किया जाता है। इसमें सांस्कृतिक प्रदर्शन के रूप में यह पर्व आदिवासी समाज की संस्कृति, प्रकृति प्रेम और पशुधन प्रेम को दर्शाता है।
प्रमुख गतिविधियाँ और परंपराएँ
गाय, बैल और अन्य मवेशियों को नहलाया जाता है,साथ ही सजाया भी जाता है इस दौरान मवेशियों को सिंदूर और तेल लगाया जाता है और उन्हें विशेष भोजन जैसे- उबले हुए अनाज खिलाया जाता है।
दीवारों पर पारंपरिक सोहराई कला
घर की सजावट के साथ-साथ घरों की दीवारों पर पारंपरिक सोहराई कला भित्तिचित्र बनाई जाती है, जिनमें पशु, पक्षी और प्रकृति के दृश्यों को दर्शाया जाता हैं। इस उत्सव में पारम्परिक नृत्य, संगीत मांदर की थाप पर, लोक गीत और सामुदायिक भोज का आयोजन होता है।
‘बुरु बाबा’, ‘बड़ा देव’ आदि की पूजा शामिल
पांच दिनों तक चलने वाला पर्व है, जिसमें कृषि उपकरणों की सफाई, मवेशियों की पूजा, कुल देवता की पूजा और परंपरागत शिकार शामिल है। इसमें मुख्य देवी-देवताओं की पूजा वा गौंरा-गौरिन, गौरैया देवी, और स्थानीय देवताओं जैसे ‘बुरु बाबा’, ‘बड़ा देव’ आदि की पूजा शामिल की जाती है।
